भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कविता / अम्बिका दत्त
Kavita Kosh से
कोई नहीं आ रहा
तुम तो बेकार ही
जरा-जरा सी आहटों पर कान दे रहे हो
सारा का सारा वक्त
गुजर रहा है - एक गिलगिली सी चाल से
तुमसे किसने कहा-तुम इन्तजार करो
न गर्मी है, न सर्दी है
बड़ा दरम्यानी कद का मौसम है
देखो जरा इन लोगों को/कितने खुश हैं
पत्थरों पर सीपियाँ घिसते हुए
शायद इनमें कोई चमक पैदा हो
इस सुनसान में
उजाले में रहना-बड़ा मुश्किल है
अँधेरे में तो फिर भी, नींद का सहारा होता है
सभ सोये हुए हैं-बेफ्रिक
उन्हें पता नहीं है-उन्हें कहाँ जाना है -
मुझे नींद नहीं आती - मैं बैचेन हूं
मुझे जानना है - मुझे कहाँ जाना है ?