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कविता से बाहर / कुबेरदत्त
Kavita Kosh से
कभी-कभी सोचता हूँ
बहुत हो गई
बहुत हो गई कविताई ।
जीवन के नाम पर शेष
चेक एक पग़ार का
कविता उसमें कुछ कर पाई ?
कभी-कभी सोचता हूँ
बहुत हो गई कविताई ।
जीवन के नाम पर
उजड़ता रचना-प्रदेश
उसमें भी यहाँ-वहाँ साँप, बिच्छू, अजदहे
कहीं कंटाल
कहीं खंदक, कहीं खाई
कभी-कभी सोचता हूँ
बहुत हो गई कविताई ।
जीवन के नाम पर बच रहे ढकोसले
पकोड़े, चाय, विमोचन, नोचन
चाय, चूँ-चूँ, चरड़-चरड़
कुछ भाषाई झाड़-फूँक
कुछ शाब्दिक शबाब
कुछ मरियल-मरियल शब्द-क्रीड़ा
सुनने की इच्छा अन्ततः
बूढ़ा शाब्दिक रबाब
शब्द न हुए शब्द ।