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कवि-प्रशस्ति / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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हे नैसर्गिक सौन्दर्य-चेतना के अनुपम कवि चित्रकार!
हे युग-सृष्टा, साहित्य-जगत् के सफल, योग्यतम सूत्रधार॥
सागर को गागर में भर कर पीयूष किया तुमने प्रदान।
भूतल के कण-कण में तुमने भर दी नूतन गरिमा महान॥
हे विश्व-कवे! तुमने शाश्वत सुन्दरता को साकार किया।
भाषा-सुमनों से सतत् भारती का अभिनव शृंगार किया॥

वैभव में पलकर भी मन पर हो सका न प्रभुता का प्रभाव।
अन्तर में पलते रहे निरन्तर मानवता के मृदुल भाव॥
तुमने जो भी रेखा खींची, होकर सजीव वह उठी बोल।
इस प्रकृति-नाट्यशाला के तुमने सब रहस्य रख दिये खोल॥
तुम आये कविता-कानन को फिर एक नया मधुमास मिला।
जड़ता में चेतनता जागी, तम को भी दिव्य प्रकाश मिला॥

सरिता के कल-कल से, निर्झर-स्वर से लेकर संगीत-सार।
बिहगों के मीठे कलरव से लेकर अमृत-सा रस अपार॥
जो गीत मनोरम रचे, विश्व के लिये अमिट वरदान बने।
जो शब्द तुम्हारे अधरों से निकले वे अमर सुगान बने॥
हे भारतीयता के प्रतीक! हे सरस्वती के सुत अनन्य!
वह बंग-भूमि ही नहीं, तुम्हें पा भारत माँ हो गई धन्य॥

जय हे रवीन्द्र! निज किरणों से जग को आलोकित बना गये।
प्रकटा कर नव स्वर्णिम प्रभात, सरसिज मानस के खिला गये॥
अभिनन्दन करते जड़-चेतन, नत हो श्रद्धा से सानुराग।
सौरभ से गमक रही धरती सारी तव पाकर यश-पराग॥
हे महामहिम! हे जगत्-वन्द्य! जन-मन में मंजुल भाव भरो।
मेरी वाणी से अखिल राष्ट्र के कोटि नमन स्वीकार करो॥