कवि से / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
ओ नवयुग-निर्माता! युग की माँग आज स्वीकार करो!
छोड़ो मधु के गीतों को अब, मानवता से प्यार करो॥
चूर-चूर कर दो वीणा को, भाती अब झनकार नहीं,
प्रणय-रागिनी बन्द करो बस, अब फिर बजे सितार नहीं।
वह कवि कैसा! जिसे काल की गति का रहे विचार नहीं,
भोले भावुक आज तुम्हें, रँगरलियों का अधिकार नहीं॥
शंख उठा लो हाथों में, प्रलयंकारी हुंकार करो।
छोड़ो मधु के गीतों को अब, मानवता से प्यार करो॥
झाँक रही दानवता देखो, आज महल के द्वारों से,
चीख रही भूखी मानवता, वंचित हो अधिकारों से।
गुंजित है सारा नभ-मंडल, जिसकी करुण पुकारों से,
विमुख नहीं होते अन्यायी, अपने अत्याचारों से॥
बदल दिखा दो युग को, फिर से उसका पूर्ण सुधार करो।
छोड़ो मधु के गीतों को अब, मानवता से प्यार करो॥
भगे भीरुता भाव आज फिर सुप्त वीरता जाग उठे,
स्वाधिकार के लिए हृदय में धधक रोष की आग उठे।
जीवन की ममता को खोकर, प्रबल देश-अनुराग उठे,
मानस की तन्त्री सेस झंकृत विप्लव का ही राग उठे॥
उबल पड़े शोणित जिससे, वह क्रान्ति कला-विस्तार करो।
छोड़ो मधु के गीतों को अब, मानवता से प्यार करो॥
आज समय की माँग हुई रणचण्डी का आह्वान करो,
भूषण के अनुयायी बन कर आज भैरवी गान करो।
अरे प्रणय-रस के मतवाले, आज प्रलय-विषपान करो,
दानवता से दबी हुई दुर्बलता का अवसान करो॥
पीड़ित मानव की सुशक्ति का, नस-नस में संचार करो।
छोड़ो मधु के गीतों को अब, मानवता से प्यार करो॥