भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहाँ दस्तक दूँ / अमृता भारती
Kavita Kosh से
कहाँ दस्तक दूँ
तुम्हारे
या इस दुनिया के द्वार तक ?
सब जगह ताले हैं
बन्द दरवाज़ों के अन्दर
और तुम
इस तरह खुले हो
कि दस्तक को कोई पट नहीं मिल रहा --
मैं भी बार-बार लौट आती हूँ
अन्दर से बन्द
अपने ताले में ।
कहाँ दस्तक दूँ
दस्तक को
कोई द्वार नहीं मिल रहा
तुम्हारे आकाश में ।