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कांई करां / हरीश बी० शर्मा
Kavita Kosh से
एक पिछाण तो बणै
सोचता-सोचता
घणा‘ई चोखा-अनोखा,
खोटा-खरा
करम करां हां
कै लोगां नैं लागै
सांस म्हैं भी लेवां हां
जीवण रो तरीको
अब सीख लिया है
सतरंगी जमानै री
ऊंच-नीच जाण‘र
गिरगिट-भेस धर लियो है
लाज-सरम नैं छोड‘र
बेसरमी नैं वर लियो है।