भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कागद अर रिसता / संजय पुरोहित

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रिसता भी होवै
फगत कागदी
ऊजळै गाभां में
हारता जूण री बाजी
बगत री थापां सूं
काळ रै धमीड़ा सूं
हो जावै बदरंग
अंतस में छापै
अनै लागै दरकण
कागद अर रिसता
एक टिल्लो फगत
बाढ़ देवै अर कर देवै मून
कीं नीं रैवै लारै
पड़या रैवै दोन्यूं
ऊंचै अटाळै में
बगत रै अटाळै में
जठै दोन्यां रो
कीं नीं होवै
अरथ अर मनोरथ।