काटो धान / महेन्द्र भटनागर
काटो धान, काटो धान,
काटो धान !
सारे खेत
देखो दूर तक कितने भरे,
कितने भरे / पूरे भरे !
घिर लहलहाते हैं
न फूले रे समाते हैं !
हवा में मिल
कुसुम-से खिल
उठो, आओ,
चलो, इन जीर्र्र्ण कुटियों से
बुलाता है तुम्हें, साथी !
खुला मैदान !
जब हिम-नदी का चू पड़ा था जल
अनेकों धार में चंचल,
हिमालय से
बहायी जो गयी थी धूल
उसमें आज खिलते रे श्रमिक !
तेरे पसीने से सिँचे
प्रति पेड़ की हर डाल में
सित, लाल, पीले, फूल !
जीन के लिए देती तुम्हें
ओ ! आज भू माता
सहज वरदान !
आकाश में जब घिर गये थे
मॉनसूनी घन सघन काले,
हृदय सूखे हुए
तब आश-रस से भर गये थे
झूम मतवाले !
किसी
सुन्दर, सलोनी, स्वस्थ, कोमल, मधु
किशोरी के नयन
कुछ मूक भाषा में
नयी आभा सजाए जगमगाए श्वेत-कजरारे !
हुए साकार
भावों से भरे
अभिनव सरल जीवन लिए,
नूतन जगत के गान !
जो सृष्टि के निर्माण हित बोए
तुम्हारी साधना ने बीज थे
वे पल्लवित !
सपने पलक की छाँह में
पा चाह
शीतल ज्योत्स्ना की गोद में खेले !
(अरी इन डालियों को बाँह में ले ले !)
उठो !
कन्या-कुमारी से अखिल कैलाश के वासी
सुनो, गूँजी नयी झंकार !
हर्षित हो उठो !
परिवार सारे गाँव के
देखो कि चित्रित हो रहे अरमान !
टूटे दाँत / सूखे केश,
मुख पर
झुर्रियों की वह सहज मुसकान,
प्रमुदित मुग्ध
फैला विश्व में सौरभ
महकता नभ,
सजग हो आज
मेर देश का अभिमान !
1948