भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कातरता / अजित कुमार
Kavita Kosh से
गर्दन पर शिकंजे जब कसने लगे,
आँखों के गिर्द जब मँडराने लगे
गिद्ध
पीठ जब दोहरी हो
बोझ के नीचे पिसती गई,
कलाइयाँ चिटख़ उठीं
तब चाहा मैंने-
काश, मेरे भी पूरे तन पर
उगी होती नाख़ून की चौड़ी-सी पर्त
जो शंख की तरह
ढक लेती सब देह...
हुआ हूँ मैं अक्सर
घोंघे से भी अधिक
कातर !