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कादम्बरी / पृष्ठ 106 / दामोदर झा

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39.
मना कयल युवराज कते तैओ नहि मानल
निज परिवारहु सँ बेसी स्वामीके जानल।
चलले कुमर बिहाड़ि जकाँ देरी बिनु कयने
पट भवनहुँमे शिप्रा तट नहि मय बितयने॥

40.
जान उपेखि सकल घोड़सेना पाछ लागल
ऊँच नीच नहि लखय जेना छल डरसँ भागल।
पहर राति धरि चलथि तखन यात्रा बिरमाबथि
घोड़हुके भोजन दिआय किछु अपनहुँ पाबथि॥

41.
अपर रातिमे पुनि दौड़थि पथ घोड़सवार भय
मध्य दिवसमे किछ छन बिरमथि तरु छाया लय।
राति दिवस नहि बूझथि सदिखन पथमे धाबथि,
कतहु कतहु किछु खाथि ततहु नहि काल गमाबथि॥

42.
सोचथि राजकुमार मनहिं मन शीघ्र जायब
वैशम्पायनके धु्रव अच्छोदक तटमे पायब।
पाछूसँ मुनि आँखि कहब बच्चा की कयले
दुख दय सब परिवार एतय हमरहु तो लयले॥

43.
मानव निज अपराध हमर ओ गरदनि धयक’
बिसरत सकल विराग हमर अवलोकन कयक।
ओकरा संग महाश्वेता केर आश्रम जायब
अपना दरसनसँ हम हुनको नयन जुड़ायब॥