कान्हा! मैं कभी तुम्हारे साथ, अकेली नहीं हो पायी / शिवांगी गोयल
"कान्हा! मैं कभी तुम्हारे साथ, अकेली नहीं हो पाई!
हमेशा कमरे में मैंने राधा को तुम्हारे साथ महसूस किया है
हमारे सह वास में वह किसी खिड़की से देखती है
या कभी बिस्तर के मुहाने पर आ बैठती है
मेरे पाँव में जब तुम आलता लगाते हो तो
तुम्हारे साथ उसकी भी उँगलियाँ स्पर्श करती हैं मुझे
तुम्हारे लिए खाना निकालती हूँ तो
एक कौर उसके लिए भी निकाल देती हूँ
मेरे सबसे एकान्त क्षण में वह मेरे झूले पर आ बैठती है
और मेरे साथ पींग मारती हुई तुम्हारा नाम लेती है
कभी तो लगता है वह मेरे अन्दर आ गई है
और मेरे होठों से तुम्हारा चुम्बन ले रही है
जिस दिन मैंने तुमसे सवाल पूछा था कि
" क्यों छोड़ आये राधिका को अकेली?
क्या उसकी याद नहीं आती?"
यकीन मानो वह सवाल मैंने नहीं, उसी ने किया था
मुझे तो पता है कि तुम उसे साथ ले आये हो ,
उसी पगली को नहीं पता है
मुझे तो वह पराई भी नहीं लगती - अपनी लगती है
उतनी ही जितने तुम अपने लगते हो
जब तुम गहरी नींद में मेरा हाथ पकड़ कर
रुक्मिणी की जगह राधा बोलते हो
तो यक़ीन मानो, हम दोनों एक साथ रोती हैं।"