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कान उग आये कई / उर्मिलेश
Kavita Kosh से
फोन की घंटी बजी
धड़कन बढ़ी
ऐसा लगा,
देह में जैसे अचानक
कान उग आये कई I
थरथराते हाथ से
थामा रिसीवर
और फिर
कान तक लाये उसे फिर यूँ लगा,
एक छुअनों से भरा
इतिहास ज्यों फिर से जगा;
कस्बई मस्तिष्क में
छाने लगी फिर बम्बई I
एक `हैलो` क्या कहा तुमने
हमें ऐसा लगा
बहुत दिन के बाद
जैसे सप्तकों के स्वर सजे,
या कि सोनल मानसिंह के
पाँव के घुंघरू बजे;
बाँचने मन लग गया
फिर से बिहारी सतसई I