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काबुल की तस्वीर / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
थोड़ी ही तो सुधर सकी थी
काबुल की तस्वीर
तालिबान तब तक ले आया
वही पुरानी पीर
भग्न हुईं मूर्तियाँ बुद्ध की
धम्म रह गया मूक
मौन तथागत देख रहे हैं
काँधे पर बंदूक
शांति, न्याय, सद्भाव सभी को
जकड़े है जंज़ीर
उम्मीदों का सूरज घायल
हर पल रहा कचोट
मन के घाव छुपा पाएगी
क्या बुर्के की ओट
अब भी धृतराष्ट्रों के आगे
द्रोपदियाँ बेचीर
महाशक्तियाँ देख रही हैं
फिर सबकुछ चुपचाप
बारूदी गंधों पर भारी
है दुनियावी ताप
‘जो तन लागे सो तन जाने’
कौन यहाँ गंभीर