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कारख़ाना / शेखर जोशी
Kavita Kosh से
अभी आठ की घण्टी बजते
भूखा शिशु-सा चीख़ उठा था
मिल का सायरन !
और सड़क पर उसे मनाने
नर्स सरीखी दौड़ पड़ी थी
श्रमिक-जनों की पाँत
यंत्रवत, यंत्रवेग से ।
वहीं गेट पर बड़े रौब से
घूम रहा है फ़ोरमैन भी
कल्लू की वह सूखी काया
शीश नवाती उसे यंत्रवत
आवश्यक है यह अभिवादन
सविनय हो या अभिनय केवल
क्योंकि यंत्रक्रम से चलता श्रम
गुरुयंत्रों की रगड़-ज्वाल से
तप जाएँ न यंत्र लघुत्तम
है विनय-चाटुता तैल अत्युत्तम ।