भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कारो मेघ बरसलै / जटाधर दुबे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कारो मेघ बरसलै
गोस्सा आगिन से तपलो धरती,
वर्षा रो अंचरा में छिपलै
कारो मेघ बरसलै।

अलसालो उठि जगलै धरती
सौन्होॅ गंध जेना कस्तूरी,
पुरवा रो छाती से चिपटी
नवयौवन के भरलो मस्ती,
प्रकृति आय हरषलै
कारो मेघ बरसलै।

आँख भेलै होकरो कजरारी,
गाल फूलोॅ रो रंगोॅ से भरलोॅ,
पनियारी कोमल होठोॅ पर
गीत नया अनजान उमड़लै
शब्दोॅ नै कुछ्छु मिललै
कारो मेघ बरसलै।

रात सलोनी नव दुल्हन शोभै
चन्दा रो बिंदी चमकावै,
सेज-सुहाग धरा रो ऐंगना
पछिया झूला ख़ूब झुलावै,
मने सितारा जड़लै
कारो मेघ बरसलै।

धूप-दीप आशा रो सुलगै
गोरी दरश पिया लेॅ तरसै,
नाचै मोर मस्त होय वनोॅ में
सब किसान आशा में नाचै,
खेती आबे सुधरलै
कारो मेघ बरसलै।