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काश / अनिल चावड़ा / मालिनी गौतम

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काश...!
कविता से बुझाई जा सकती पेट की आग,
परोसा जा सकता इसे
भूखे व्यक्ति की थाली में,
तो मैं इस बढ़ी हुई महँगाई में
ग़रीबों की झोंपड़ियों में गुड़मुड़ पड़े शरीरों को
क्षुधातृप्ति का थोड़ा-सा अहसास करवाना
ज़रूर पसन्द करता ।

उत्साह से भरा निकल पड़ता
कविता का थैला लेकर
किसी भूखे के पास जाकर कहता
कि ले यह एक ग़ज़ल खा ले
प्रत्येक शे'र का मर्म गले में उतार ले
प्याला भरकर गीत पी ले
अन्तरे के आरोह-अवरोह को
घूँट-घूँट करके पीना
अछांदस कविताओं से अपनी आँतो को ठण्डक पहुँचा दे
अपने अंग-अंग में सॉनेट का स्वाद पहुँचा दे ...

लेकिन जिनके पेट में दावानल जला है
ऐसे भूखे लोगों का
स्वाद से भला क्या लेना-देना ?
स्वाद का आग्रह तो वे लोग रखते हैं
जिनकी जेबें भरी हों ।

अपने दिल तो भरे हुए हैं
लेकिन पेट तो ख़ाली हैं न !
गिद्ध की तरह टूट पड़ो मृत क्षणों पर
चोंच मार-मारकर सब बाहर निकाल दो
एकाध मुक्तक मिल जाए तो भी बहुत है
अरे, कहीं से एक छोटा-सा हाइकु मिल जाए
तो सम्वेदना से भरा एकाध शब्द सुनाई दे
और जब तक कुछ न मिले
इसी के सहारे कुछ देर और टिका जा सके ।

भूखे लोगों की कुम्हलाई आँखों को पढ़ते वक़्त
एक ही पंक्ति पढ़ी जाती है
काश, कविता को खाया जा सकता
बुझाई जा सकती इससे पेट की आग ।

मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : मालिनी गौतम