भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कितना महँगा है उल्लास / श्यामनन्दन किशोर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चूम रही लहरें पूनम को,
चूम रही धरती आकाश।
चूम रही किरणें शतदल को,
चूम रही परती मधुमास।

कौन समझता है, दुनिया में कितना महँगा है उल्लास।
आग-भरा पानी का मन है, कौन करे सहसा विश्वास।
कौन समझता है, दुनिया में कितना महँगा है उल्लास।

यह दूरी का राज कि लगता,
मिलते धरती और गगन हैं,
क्षितिज-अधर पर लगता जैसे-
मिलते दो-दो प्राण मगन हैं।

यह दुर्भाग्य जगत क्या समझे, अपना घर ही बना प्रवास।
कौन समझता है, दुनिया में कितना महँगा है उल्लास।

नैश तिमिर के साथ रही गुमसुम
रोती जलजों की पाँती।
और कहीं तब फटी विकल हो
प्रातः अरुण गगन की छाती!

एक क्षीण मुस्कान बनाने, मिटते कितने हैं उच्छ्वास।
कौन समझता है, दुनिया में कितना महँगा है उल्लास।

(21.11.1950)