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किताब / आरती कुमारी

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खोलती हूँ रोज़
अपनी चाहत की किताब
और पढती हूँ
दिल के पन्नों पे धड़कते
तुम्हारे नाम को ।

उन पन्नों में
कर रखे हैं रेखांकित मैंने
एहसास के उन कोमल शब्दों को
जिनके भावार्थ बहुत गहरे हैं ।

चिन्हित कर रखे हैं
उन तारीखों को भी
जिनमें क़ैद हैं कुछ
मुस्कुराते लजाते हसीं पल

मोड़ रखे हैं
कुछ उदासियों के
आपसी मनमुटाव के
पन्नों को भी मैंने
जिन्हें नहीं खोलना चाहती मैं
दुबारा भी कभी।

और हाँ
कहीं कहीं लगा रखे हैं
तुम्हारी यादों के बुकमार्क भी मैंने
जिन तक जब चाहूँ
पहुँच जाती हूँ मैं
अपनी खामोश बेबस तन्हाईयों में
और पा जाती हूँ तुम्हारा साथ।

हर दिन किसी न किसी बहाने
कुछ न कुछ पढ ही डालती हूँ तुम्हे मैं
और समझ लेना चाहती हूँ
तुम्हारे किरदार को
तुम्हारे विचारों को
तुमसे जुड़ी परिस्थितियों को
मजबूरियों को
ताकि लग न जाए उनमें
अविश्वास के दीमक
और नासमझी की धूल ।