किरचें (कविता) / मृत्युंजय कुमार सिंह
बिखरी पड़ी हैं किरचें
टूटे हुए और टूटते हुए मूल्यों की किरचें
लहूलुहान हम-तुम और यह परिवेश
लहूलुहान पीड़ा में बिलखता सारा देश
प्रतिकार का कोई संकेत नहीं दिखता
सब कुछ पड़ा है काला
कुछ श्वेत नहीं दिखता
दोस्त,
पानी चाहे जितना भी हो ज़रूरी
जितना भी हो सस्ता
अन्न का विकल्प तो नहीं हो सकता;
निर्माण चाहे जितना भी हो साधारण
टुकड़ों के जुड़ने से
तो बनेगा केवल आवरण
मिथकीय पराक्रम से अभिभूत संततियाँ
बस सो भर सकती हैं,
सो वह सो ही तो रही हैं
और जो शेष बची हैं उनींदी
नाच रही है किरचों पर,
टूटे हुए और टूटते हुए मूल्यों की किरचों पर।
उलीच कर अपना लहू
पुरखों की समाधि पर,
दीवाने हैं
हँसते हैं
अपनी पलती व्याधि पर
दधीचि की गड़ी हुई हड्डियां
वज्र-सी सधी हड्डियां
अब अपनी ही ज़मीन तोड़
भूकंप लाती हैं
गुरु दक्षिणा में कटे एकलव्यों के अंगूठे
अपनी शापित साधना के
शव हिलाती हैं
मलबों के ढेर-सी यह त्रासदी
गंभीर हो चुकी है
कल तलक की विडंबना
अब पीर हो चुकी है;
लेकिन फिर भी
प्रतिकार का कोई संकेत नहीं दिखता,
सब कुछ पड़ा है काला
कुछ श्वेत नहीं दिखता।