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किससे करें गिला / जगदीश व्योम
Kavita Kosh से
भीड़ भरी इस
नीरवता का
किससे करें गिला
पीपल, बरगद, नीम
छोड़कर कहाँ चले आए
कैसे कहें
यहाँ पग-पग पर
ज़ख़्म बहुत खाए
जो आया
हो गया यहीं का
वापस जा न सका
चुग्गे की
जुगाड़ में पंछी
खुलकर गा न सका
साँसों वाली
मिली मशीने
इंसां नहीं मिला
इस मेले में
सभी अकेले
कैसा ये संयोग
जितना ऊँचा
क़द दिखता है
उतने छोटे लोग
किसको फुरसत यहाँ
कि जाने,
उसका कौन पड़ोसी
मन में ज्वार
छिपा रहता है
होठों पर ख़ामोशी
रहे बदलते
राजा रानी
बदला नहीं किला
अपनी अपनी
नाव खे रहे
सब नाविक ठहरे
कोई नहीं
किसी की सुनता
सबके सब बहरे
बूढ़े बरगद की
दाढ़ी का
कहाँ ठिकाना है
गौरैया का
नहीं यहाँ अब
आना-जाना है
गमलों में भी
कहीं भला कब,
कोई कमल खिला