भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किसान / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
अपना बदन उधेड़ के
ख़ुद अपने हाथों से
ज़मीं के आँचल पे
हरयाली टांक देते हैं
रूखी सूखी खा के
पानी पी लेते हैं
अनाज का एक-एक दाना
बांट देते हैं
किसान
फिर कुछ ऐसे दब जाते हैं
अपनी ज़रूरतों के बोझ में
कि जिस्म की
बोसीदा दीवारों पे
ख़ुद बख़ुद उगने लगती हैं
उकताहटों की घांस फूस
वादों उम्मीदों
और तसल्लीयों की
अफीम का नशा
धीरे धीरे उतरने लगता है
ज़िन्दगी की कमर
झुक जाती है
आस टूट जाती है
जीने की आदत
छूट जाती है॥