भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किस को क़ातिल / अहमद नदीम क़ासमी
Kavita Kosh से
					
										
					
					किस को क़ातिल मैं कहूं किस को मसीहा समझूं 
सब यहां दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूं 
वो भी क्या दिन थे की हर वहम यकीं होता था
अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूं 
दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे
ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूं 
ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी
लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूं  
	
	