भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ और शेर / शमशेर बहादुर सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(जो एक शादी के मौक़े पर कहे गए)

गुलशन से जो इतराती आंगन में बहार आई

ख़ुशज़ौक़ दुल्हन उसकी शोख़ी को सँवार आई।


यह कौन निगार आया, फिर बाँगे-हज़ार आई

कलियों पे निखार आया, फूलों पे बहार आई।


फिर शोरे-अनादिल है, फिर गुंचे परीशाँ हैं :

ए बादे-सबा, लेकर क्या नामए-यार आई?


हर एक शगूफ़ा यह कहता हुआ खिलता है।

"शायद कि बहार आई! शायद कि बहार आई!"

(1945 में रचित)