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कुष्ठरोगी की कविता / नवारुण भट्टाचार्य
Kavita Kosh से
मेरा यह कोढ़
क्या शहर कलकत्ता मिटा सकता है
जिसके हाइड्रेंट मे पानी नहीं है?
इसीलिए मै निर्भय
रेडियम की धूल को चाट लेता हूँ
जीभ के झाड़न से
जिससे मेज़ झाड़ी जाती है
सदा चमचमाती रहती है
पता ही नहीं चलता
कि यह कोढ़ी की मेज़ है।
मेरी जमापूँजी है
बहुत मामूली कुछ छायापथ,तारे
साइकिल रिक्शे की टूटी चेन का चाबुक
जो मेरे हृदय को लहुलुहान करता है
और ख़ास गुप्त चीज़ है
कुछ नेप्थलीन के चाँद
जो पेशाबघरों से इकट्ठा करके मैंने
रख दिए है अपने बादलों की तहों में
किसी अतक आलौकिक स्पर्श से
मेरा यह रोग छूट गया
तो मैं पेड़ के आईने में
अपनी हरी मायावी परछाई फेंकूँगा
और उसी जंगल में
दिखूँगा चिता की तरह सुंदर।