भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कूओ / ओम पुरोहित ‘कागद’
Kavita Kosh से
तरक्की रै खांवां चढ
म्हे गांव छोड
अंगै धार लियो सैर
कूओ पण सांभ्यां बैठ्यो है
महारै पुरखां रा ऐनाण
उणां रै होवण री साख
आपरी पाळ माथै
पड़ी ई होवणीं है
पुरखां रै हाथां छूट्योड़ी
एक आध डोलची
पिंदै में कूवै रै
जिण नै लगायां बैठ्यो है
काळजै
कूवै नै पण सांम्भै कुण!