भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
केवल तुम ही / कैलाश पण्डा
Kavita Kosh से
जहां कहीं भी
पल्लवित पुष्पित हो जीवन
आच्छादित तुम से
हो चाहे
उज्जवल सूरज हो
रश्मि से
नित्य चराचर जग में
दीनहीन के
रिक्त स्वरों में
करूणा वात्सल्य की
प्रतिमूर्ति में
सजग सहज सा
रोपित कुछ, याचक की याचना में
दाता की उदारता में
जल-थल-नभ में
कोटि-कोटि के जन जीवन में
श्वास—प्रतिश्वास में
मैं निश्चित निश्चल
सनातन सत्य
क्योंकि मेरे अन्तः में भी तो
हे देव ! तुम ही हो
केवल तुम ही।