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कोई मुझमें / शुभम श्रीवास्तव ओम
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					कोई मुझमें — 
मुझसे भी ज़्यादा रहता है
मन में उगते
सन्नाटों के
पंख कुतरता है ।
कहा-अनकहा सब सुन लेता है,
वह चेहरे की भाषा पढ़ता है,
दबे पाँव ढलकर दिनचर्या में,
रिश्तों की परिभाषा गढ़ता है,
कोई है जो — 
जीवन की
उल्टी धारा से
लड़ता,
लेकर पार उतरता है ।
आँगन में दाने फैलाता है,
नये परों को पास बुलाता है,
ठिगनेपन का दर्द समझता है,
बूढ़े पेड़ों से बतियाता है,
कोई
ख़ुशबू जैसा छाता है,
मेंहदी जैसा— 
रंग निथरता है ।
अधजीए काग़ज़ सरियाता है,
खुली नोक पर कैप लगाता है,
एक हथेली भर ताज़ा गर्माहट
कठुआए दिन में लौटाता है,
कोई है जो — 
मन में
कुछ पल को धुँधलाकर
अगले पल
कुछ और उभरता है ।
 
	
	

