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कौड़ी / नज़ीर अकबराबादी

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कौड़ी है जिनके पास वह अहले यकीन<ref>विश्वासपात्र</ref> हैं।
खाने को उनके नेमतें, सो बेहतरीन हैं॥
कपड़े भी उनके तन में, निहायत महीन हैं।
समझें हैं उनको वह जो बड़े नुक्ता चीन हैं॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥1॥

कौड़ी बगै़र सोते थे ख़ाली ज़मीन पर।
कौड़ी हुई तो रहने लगे, शह नशीन<ref>ऊँची इमारत</ref> पर॥
पटके सुनहरे बंध गए जामो<ref>कपड़ा</ref> की चीन पर।
मोती के गुच्छे लग गए, घोड़ों की ज़ीन पर॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥2॥

कौड़ी ही चाहती है सदा बादशाह को।
कौड़ी ही थाम लेती है, फोजो सिपाह<ref>फौज और सिपाही</ref> को॥
लेकर छड़ी रूमाल गदा भी निबाह को।
फिरता है हर दुकान पै कौड़ी की चाह को॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥3॥

कौड़ी न हो तो फिर यह झमेला कहां से हो।
रथ ख़ाना, फ़ील ख़ाना<ref>हाथियों के रखने का स्थान, हाथीखाना</ref>, तवेला<ref>घुड़साल, अस्तबल</ref> कहां से हो॥
मुंडवा के सर फ़क़ीर का, चेला कहां से हो।
कौड़ी न हो तो साई का मेला कहां से हो॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥4॥

कांधे पे तेग़ धरते हैं कौड़ी के वास्ते।
आपस में खू़न करते हैं कौड़ी के वास्ते॥
यां तक तो लोग मरते हैं कौड़ी के वास्ते।
जो जान दे गुज़रते हैं कौड़ी के वास्ते॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥5॥

गालीयो मार खाते हैं कौड़ी के वास्ते।
शर्मों हया उठाते हैं कौड़ी के वास्ते॥
सौ मुल्क छान आते हैं कौड़ी के वास्ते।
मजिस्द को दम में ढाते हैं कौड़ी के वास्ते॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥6॥

कितने तो हममें ऐसे हैं कौड़ी के मुब्तिला।
कौड़ी हो गंदगी में तो लें दांत से उठा॥
खस्त नहीं है, ऐसा ही कौड़ी का मर्तबा।
कोई दांत से उठावे हम आंखों से लें उठा॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥7॥

बिन कौड़ी खु़रदिये<ref>फुटकल छोटी मोटी चीजे़ बेचने वाला</ref> के बराबर भी पत<ref>इज़्ज़त, आदर</ref> न थी।
कौड़ी जब आई पास तो बन बैठे सेठ जी॥
आके गुमाश्तों<ref>बड़े व्यापारी की ओर से बही आदि लिखने, माल खरीदने या बेचने पर नियुक्त व्यक्ति</ref> की खुली हर तरफ़ बही।
फिर वह जो कुछ कहें तो वही बात है सही॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥8॥

बिन कौड़ी थीं न तेल की बासी मंगौड़ियां।
कौड़ी हुई तो छटने लगीं लंबी चौड़ियां॥
यूं ख़ल्क़<ref>दुनिया</ref> दौड़ें मक्खियां, जू गुड़ पे दौड़ियां।
ख़ालिक ने क्या ही चीज़ बनाई हैं कौड़ियां॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥9॥

ख़ासे महल उठाते हैं कौड़ी के ज़ोर से।
पक्के कुंए खुदाते हैं कौड़ी के ज़ोर से॥
पुल और सरा<ref>सराय, मुसाफिरखाना</ref> बनाते हैं कौड़ी के ज़ोर से।
बाग़ो चमन लगाते हैं कौड़ी के ज़ोर से॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥10॥

ले मुफ़्लिस<ref>गरीब</ref> और फ़क़ीर से ता शाह और वज़ीर।
कौड़ी वह दिलरुबा<ref>दिल को लुभाने वाली</ref> है कि है सब की दिल पज़ीर<ref>दिल को खुश करने वाली</ref>
देते हैं जान कौड़ी पे तिफ़्लो<ref>बच्चा</ref> जवानो पीर।
कौड़ी अजब ही चीज़ है मैं क्या कहूं ‘नज़ीर’॥
कौड़ी के सब जहान में, नक़्शों नगीन हैं।
कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन-तीन हैं॥11॥

शब्दार्थ
<references/>