भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्या कहूँ कैसे कहूँ / नवीन कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1
युवावस्था के शुरूआती दिनों में
जब सभी चीजें खींचा करतीं
उनमें स्त्रियों भी थीं

वे समवयस्का बहन की दोस्त होतीं
और (अंत: ) मेरी भी

एक अंजान –सी किशोरी को भी
बहन-सा हो जाना
- बहन हो!
कहा कि
        रेलवे लाइन पर सारी ट्रेनें
        रुककर इंतजार करने लगी        लगा कि
आदमी बिना प्लेटफार्मं के ही ऱुकने लगे
भीड़ बढने लगी
लोग उचककर देखने लगे
सुना     ग्लोब विलेज हो गया
आलोचना चिल्लाई
- जीवन में भी सूचना का रोना मचा डाला है
       सूचना पर कविता
       सूचना पर कहानी
सूचना में सब दब गया है
इतिहास प्रसव वेदना झेल रहा है

पिता उम्र नायकों की भीड़ में
नायिकाएं गणिकाओं-सी लगीं
                बहन ........... प्रेमिका
                ...................प्रेमिका
                            बहन..............बहन
                                        प्रेमिका

2

सारे चहरे इतने गड्ड-मड्ड हो रहे थे
     कि मौसम आपस में गड्ड-मड्ड हो रहे थे

बसंत गायब था
गर्मी बढ गई थी

लोगों ने सामान्य होना शुरु किया
घबराहट में आवाज़ जाती रही

-*-*-*-

देश गुम हो गया था
फिर भी
       सरहदें ज्यादा उभर कर सामने
                                   आई थीं

सरहद के पार बसें अटी पड़ी थीं
धूल , धूआं, गुबार को चीर आदमी
                            आ –जा रहे थे

कुछ ओक रहे थे
कीचड़-कीचड़ हो आया था
यूरिया की महक थी
जबकि यूरिया पहुंच नहीं पाया था
लोगों ने पानी शायद ज्यादा पीया था
फिर भी पानी पचता थोड़े ही है

  • -*-*-


बहुत समय गुजरा
युवावस्था
और संभवत:
बेरोजगार अविवाहित जीवन के अंतिम दिनों में
(जब भी) दाढ़ी बनाने को बैठता हूँ-
तब तक पिता, बहन, भीतिजियाँ मुझको
ऐसा करने को टोक चुके होते हैं
समय भी बहुत होता है         पढने घुमने
दोस्तों के साथ गप्पे हांकने के अलावा
आलस्य का भी मामला नहीं होता
बहुत सारे इसी तरह के मामले होते हैं
आशाओं को असफलताएं निगलती होती हैं
   ( क्या कुछ बच रहता होगा कि
              वो आत्मसंहारक नहीं हो पाता होगा)

उभरे गोल –ग्लास में
ढाढ़ियां कोट से गर्द झाड़नेवाली ब्रश-सी
                               दिखती हैं

और ऐसे ही एक समय में
एक स्त्री को क्यूँकर
            क्या –सा लगा
कि उसने कह डाला- भाई
क्या उसको भाई नहीं
या कि सभी भाई आज
मेरी तरह के हैं       बेरोजगार ढढियल
जिसकी ढाढियां गड़ती हैं उनकी
भतीजियों को
           कटे धान की खूंट-सी

क्यूंकर क्या-सा लगा
कि उसने कह डाला- भाई

आवाज़ तो गुम थी
सरहदों को पार करना मुश्किल
न रो पाता था
सोचा हाथ में हथेली लूँ
                    और विश्वास भी

बस्स सोचा
सूचना इतिहास बन गई थी
आतंक था उसका कहानियों में
               कविता पर

उसने छूआ देखूं बुखार है
नहीं था पर शक था
                  ( देह तो ऐसे भी गर्म रहती हैं)

इस बार भेंट होगी तो
कहूंगा एक कहानी सुन लो
                  कह पाऊंगा क्या
                  कि भीगता रहूंगा
                  भिगा पाऊंगा भी क्या

क्या कहूंगा सरहद पार से चीख की पूकार तेज़ होती जा रही है
बचाना
हम मारने लगे अपनी-अपनी सरहदों में
उन्होने कहा- नहीं हम गद्दार नहीं
“साले , लूटेरे इतिहास की दुहाई दिलवाते हैं
             हम बदला लेगें”

  • -*-*-


एक ज़माने पहले / जब एक स्त्री को पहली बार स्त्री के रुप में जाना
जिससे पहचान करवाई गई
ये तुम्हारी स्त्री हो सकती है- सा
उसके गीले चेहरे ने आश्वस्त किया था
मैं कुछ नहीं कहा
कहना क्या सुनना क्या
कोई ज़रुरी भी नहीं लगा था

जाना और भी लोग हैं
कोई स्त्री जरुरी नहीं
               मेरी ही हो

उस गीले चहरे को मैं ढूंढता रहा
कई बार मिला वो
कई –कई बार मिला
फिर भी कुछ नहीं कहा
ढचके खाते बसों से
धूल गुबार वाले अंधेरे लंबे हाईवे को
पार करता रहा
जहाँ पहुंच जाना चाहता था
पहुँचने के पहले
              लगातार उतरता रहा
सामान बांधे गेहुँ-चावल
             कभी-कभी सब्जियां भी
बसें बदलनी पड़ती

गमी से लौटा धूल-धूसरित चेहरा
लिए खड़ा हूँ
किसी को भी गीला नहीं दिखता
मैं बहुत उदास हूँ
इस बीच बहुत सारी क्रांतियां खो गईं
                            भ्रांतियों में

अंतर्धारा में लगातार विद्रोह पनपते रहे
पर सभी को अपने आपको
अपनी तरह से छूट थी               जिसको चुनते

विद्रोह बंटता रहा
एक रस्सी तक न बन सकी

आज भी खून में एक इच्छा बसी है
एक गीले चहरे की  
               जो गीला कर दे
धुल –पुंछ जाए

  • -*-*-


पूरी लाश है
जो चादर से ढंकी है     बंधी है
लगातार ढचके खाती
बसों ट्रेनों के मुसाफिर सामाचार के कैप्सन में
टाँग दिये गये-से हैं-
एकदम एक-से चेहरे नजर आते हैं
एक-सी गिनती होती है
कभी-कभी हम एक खास गिनती के बाद
गिनना तक भूल जाते हैं
लाशें वैसे बंधी पड़ी हैं
जैसे गले हुए हाथ पैर को पट्टियों से
बांधे भिखमंगे
अटे पड़े हैं     मंदिर मस्जिद के सामने
केवल पट्टी ही गीली हो पाती है
धूल भी नहीं पुंछ पाती
कूहा में
जबकि लगा भींगा है सबकुछ
ठठरी काठ बनी हुई देह की फर्श पर
स्केटिंग करता
ध़ड़धड़ाता फ़र्लांगता
सीढियों से ऊपर चढ़ घंटी मार देता हूं
घंटी की आव़ाज कितनी सहज / हो गई है
खतरा खतरा नहीं दिखता
सारा माखन-पोकर दह जाता है
मखाने की चिंता में हमारे अख़बार भरे पड़े हैं
मखान ऊपर मचान पर
                    चेहरे ही चेहरे
“ बचो
      गहो
           लंबी तेज धार है”

सभी चिल्लाते हैं
चिल्लाहट चिल्ल पों
                   बहस बहस

सारा मखान दह गया
                   बस्स

चेहरे गीले हैं       कोई धूल नहीं
मैं उदास हूं
आवाज़ गुम है
क्या कहूं  कैसे कहूं