क्षिप्रा के किनारे / महेन्द्र भटनागर
लड़खड़ाते पाँव हैं, सूनी डगर
झूम आगे चल रहा हूँ मैं मगर !
चांदनी नभ में सुखद फैली हुई,
दीपकों की राह में आभा नयी,
दूर हिलता वृक्ष पीपल का, पवन-
प्रति-झकोरे पर, विमूर्छित मूक मन !
झाँकता जिसमें नशीला चांद है,
छा गया रे कौन-सा उन्माद है ?
आरती के स्वर, रहा घंटा घहर;
उठ रहीं प्रति बार क्षिप्रा में लहर !
पंथ पगडंडी बना मैं चल रहा
मार्ग का अणु-अणु बना संबल रहा !
औरतें गाती रही थीं आ जहाँ
जा रहा था एक मुर्दा भी वहाँ !
श्वान थोड़े-से पड़े थे भोंकते,
नालियों के पास भिक्षुक कोसते,
डालियों पर बैठ उल्लू बोलते,
दूत प्रतिपल ईश के जग डोलते !
साधुओं का है अखाड़ा पास ही
है जिन्हें परमात्मा विश्वास ही ?
और मैं आगे रहा हूँ चल उधर
जीर्ण कुटिया एक प्राणों की जिधर !
लड़खड़ाते पाँव हैं, सूनी डगर !