खारघुली में एक दिन / दिनकर कुमार
अवनी चक्रवर्ती के लिए
कविता का फ़र्श था, कविता की छत थी
इर्द-गिर्द थी सिर्फ़ कविता
ऐसा दिनचर्या की शुष्क कोठरी से निकलकर
कभी-कभी होता है
जब भावनाओं में जीते हैं हम
जो तनाव भीतर था
और शहर में था
उससे बेख़बर थीं लेटी हुई पहाड़ियाँ
धूप सेंकती हुई नदी
समतल की आबादी और चीख़ से अलग
किसी पवित्र टापू पर
हम लोग पी रहे थे कविता की शराब
हौले-हौले गा रहे थे
जगजीत सिंह, पॉल राब्सन
सुमन बनर्जी, मेंहदी हसन
सामने की पहाड़ी पर गा रही थी कोयल
चारमिनार सिगरेट की राख बनकर
हमारे सामने झड़ रहा था समय
काफ़्का की जटिलता पर हमने बात की
क़स्बों-गाँवों में मिट्टी में सनी हुई
लोककथाओं का जिक्र हुआ
के सच्चिादानंद का प्रेमगीत वक़्त की लपटों से
झुलसा हुआ था
पहाड़ पर बनी कच्ची सीढ़ियों पर चढ़ते हुए
शहरी ज़िन्दगी की आदत के मुताबिक हाँफने लगा
किलेनुमा हवेलियों को देखा
जो पहाड़ों को छीलकर ज़ख़्मी कर
स्थापित की गई हैं
कविता छककर पीने के बाद
और कोई प्यास नहीं बची थी
परोस दिया गया था भोजन
हम गोधूलि का एक हिस्सा बनकर
चढ़ते रहे घुमावदार सीढ़ियों पर
फिर उतरते रहे
नवग्रह मंदिर के सामने से
शाम औ शहर के सीने में ।