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खेलते हैं दाँव / दीनानाथ सुमित्र
Kavita Kosh से
अब नहीं जाना मुझे वह गाँव
काँपते हैं नाम से ही पाँव
खेत में उगते मकानें
जिन्दगी लगती दुकानें
प्यार का मिलता नहीं है ठाँव
अब नहीं जाना मुझे वह गाँव
काँपते हैं नाम से ही पाँव
बुर्जुर्गों का भार जीवन
हो गया बेकार जीवन
खो गई है बरगदों की छाँव
अब नहीं जाना मुझे वह गाँव
काँपते हैं नाम से ही पाँव
अब नहीं तुलसी बिहँसती
अब नहीं फसलें लहरती
सिर्फ रिश्ते खेलते हैं दाँव
अब नहीं जाना मुझे वह गाँव
काँपते हैं नाम से ही पाँव