गंगा / 14 / संजय तिवारी
हे राम
तुमसे पहले से हूँ
तुम्हारे बाद भी रहूँगी
ऐसी ही बहूँगी
यही सब सहूँगी
तुम तो अभी अभी आये हो
सब कुछ जान लेने को अकुलाये हो
अभी रहने दो
सहने दो
जो कह सकी,
बस उतना ही कहने दो।
मैं तो अनंत की यात्री हूँ
एक अलग गायत्री हूँ
तुम शुरू करो पगधान
अपेक्षित प्रस्थान
तुम्हारे अवतरण की साक्षी हूँ
मर्यादा की स्थापना की आकांक्षी हूँ
तुम यही करना
इस कर्ज को अवश्य भरना
जानती हूँ।
विधि का विधान अटल है
तुममे राम प्रबल है
विश्वमित्र है तुम्हारे साथ
पकडे रहना ऋषि का हाथ
ये क्रान्ति के प्रणेता हैं
अंतस के प्रचेता हैं
युगधर्म निभा रहे हैं
इसीलिए तुम्हें लेकर जा रहे हैं
लोकाचार्य लखन का सहभाग
यही तो है इस पवन यात्रा का राग।
मैं मंद थी
तुमने गति दे दी
मुझे अलोकिक मति दे दी
अहल्या के बाद मुझे छूकर
आभारी बना दिया
न्यारी बना दिया
अभिभूत हूँ राम
इसी शक्ति से बहूँगी अविराम।
म्रत्यु
मोक्ष
माया
ममत्व
मसान
किसी अवतरण से भी महान
इनकी पुनीता बन कर रहूँगी
सृष्टि के संधान तक बहूँगी।