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गजल-सूंघी लेॅ खुशबू / धीरज पंडित
Kavita Kosh से
सूंघी लै खुशबू महाँक लागतोॅ
आपनऽ देशऽ के माठी महान लागतोॅ!
हिन्दु या मुस्लिम, सिख या ईसाई
सब्टा रोॅ दिल यहाँ जवान लागतोॅ!
कश्मीरोॅ से कन्याकुमारी तलक तेॅ
समूचे टा झुकलोॅ असमान लागतोॅ!
कण-कण मे गंगा रो पानी बहै छै
आपनोॅ छै सौं से जहान लगतोॅ!
लीडर के देखी रबैया से भईया
बिदकलोॅ जरा सा अरमान लगतोॅ!
एकता के डोरी में बाँधी के तरकस
देश-द्रोही केॅ तीरे-कमान लगतोॅ!
घूस के जमाना मे गाँधी के बंदर
अन्टी के आगू शैतान लगतोॅ!
बाँकी जे बचलो छै, भुख सें मरै छै
ओकतैवो जरा तेॅ ‘चलान’ लगतोॅ!
जिनगी के बेा मेॅ ‘धीरज’ के साथी
समझबोॅ गजल तेॅ कुछ जान लगतोॅ!