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गदराई गंदम / ओमप्रकाश सारस्वत
Kavita Kosh से
गदराई
गंदम ने
खोल दिया
केशपाश
जूड़ा
जो संयम का
बांधा था
लाज की पालकी को
लक्ष्मण का
कांधा था
दूर हुआ
बिखर गया
मुग्धा का
मदिर हास
देह को
बाँध-बाँध
रखने के यत्न लुटे
आँखों से ताँक-झाँक
करने के
स्वप्न जुटे
गोरी के यौवन का
शत्रु हुआ
श्वास-श्वास
रोम-रोम
बासन्ती
भाषाएँ बोल रहा
काम
रंग-रोली
ले पिचकारी
डोल रहा
जागी सुधियों का
स्पर्श
लहरा गया
आस-पास