गर्भस्थ शिशु की पुकार / विमल राजस्थानी
गर्भ-गीता
मुझे जन्म मत देना माता।
भीतर जो भी बहुत भला हैं
बाहर तो कट रहा गला हैं
सब अतीत को पूज रहे हैं
यद्यपि कष्ट अनेक सहे हैं
तुम कहती हो, मैं सुनता हूँ
भीतर ही भीतर गुनता हूँ
अन्धकार अच्छा लगता है
अन्तर मैं प्रकाश जगता है
वह कृत्रिम आलोक व्यर्थ है
(तम को हरने में असमर्थ है)
पर भीतर जो अन्धकार है
रखता सच्चा वही अर्थ है
तुम जब रामायण पढ़ती हो
नये-नये सुअर्थ गढ़ती हो
गीता-पाठ भला लगता है
उर का कमल स्वतः खिलता है
बाहर तो बस मार-काट है
लाशों से पट रही बाट है
मनुज-मनुज को खा जाता है
पी कर रक्त अघा जाता है
मा! जब-जब ‘दैनिक’ पढ़ती हो
तब-तब तुम रो-रो पढ़ती हो
चारों ओर लूट-हत्या है
अपरहणों की अलग व्यथा है
ना,ना मा! भीतर ही अच्छा
बाहर लोग कहेंगे बच्चा!
भीतर तो मैं पूर्ण पूरुष हूँ
अर्जुन का गांडीव धनुष हूँ
प्रत्यंचा पर वाण सधे है
संधानों पर नयन बंधे हैं
एक-एक को मारूँगा मैं,
गीता- गर्भ’ उचारूँगा मैं
तुमको मैं वाणी दे दूँगा-
मैं पर्दे की ओट रहूँगा
तुम्हीं अग्नि-कण बरसाना मा!
अच्छों को समेट लाना मा!
पांडव तो बस पाँच मात्र थे
मैं प्रभु का आलंबन लूँगा
नष्ट कौरवों को कर दूँगा
‘नैतिकवान’ जुटा लो बस मा!
पापी बन जाएँगे लुकमा
बत्तिस दाँत उन्हें चर्वण कर
रक्तांजलियों से तर्पण कर
गर्भ-महाभारत सुनाम दे
सत्य-समर को यों विराम दे
एक नया भारत रच देंगे
जग को एक नया सच देंगे
जूठी पत्तल नहीं रहेगी
नहीं चाटने वाले होंगे
इस धरती पर अब न और मा!
हमे बाँटने वाले होंगे
बरसायेंगे फूल विधाता
मुझे जन्म मत देना माता!!