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गाँठ / रविकान्त
Kavita Kosh से
काँपती सुइयों पर बैठा समय
तीन टाँगों पर पटपटाता हुआ पंखा
और उनके बीच
खामोश धड़कन अनंत
प्रेम और कृपा करते हुए
डरता हूँ
उन सभी घटनाओं से
जो लगातार घट रही हैं
निरंतर साँस ले रहे हो तुम, मैं
धुआँ उगलती हुई चिमनियाँ
गर्म हैं वर्षों से
किसके लिए?
दिन कटते नहीं
टपकते हैं
वर्ष बीतते नहीं
झर जाते हैं
और
जीता चला जा रहा हूँ मैं भी
तमाम प्रश्नों के उत्तर जुटाए बिना