भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गाँव की आँख / एकांत श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
भूखे-प्यासे
धूल-मिट्टी में सने
हम फुटपाथी बच्चे
हुजूर, माई-बाप, सरकार
हाथ जोड़ते हैं आपसे
दस-पॉंच पैसे के लिए
हों तो दे दीजिए
न हों तो एक प्यार भरी नजर
हम माँ की आँख के सूखे हुए आँसू
हम पिता के सपनों के उड़े हुए रंग
हम बहन की राखी के टूटे हुए धागे
कई महीने बीत गए
ट्रेन में लटककर यहाँ आए
बिछुड़े अपने गाँव से
लेकिन आज भी
जब सड़क के कंधे से टिककर
भूखे-प्यासे सो जाते हैं हम
घुटनों को पेट में मोड़े
तब हज़ारों मील दूर से
हमें देखती है
गाँव की आँख।