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गाँव के साँझ / बैद्यनाथ पाण्डेय ‘कोमल’

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नभ के अगनवाँ में पछिमी किनरवा पर
मचले अबीरवा के फाग।
दूर परदेशवा से विहगन के टोलिया;
खोंतवा में आके बोले मीठी-मीठी बोलिया;
रुखवन के फुनगी पर सोनवा चमकि गइले
गावे खग रगिया विहाग।
खेतवा-बधरिया से अइले किसनवाँ;
मिलि के पिरियवा से खिल गइले मनवाँ;
दिन के बियोगवा से तड़पत जियरा में
छाई गइले मधुमय राग।
खेत-खरिहनियाँ में लडि़कन के गोलवा
हिल मिल कूदि खेले खेल चमर ठोलवा
पोखरी के तीथवा प घुमडि़-घुमडि़ बइसे
सभवा जमावताड़े काग।
घर के मुड़ेरवा पर धुअवाँ जे नाच करे;
गँवई अदीमियन के मनवाँ में मोद भरे;
गाँव के बहरिया रे, अरिया-पगरिया से
धुअवाँ के लागि गइले दाग।
बदरी के धरवा से निकसल संझियाँ;
देखि के सरूप आपन बिहँसल संझिया;
चुपके उतिर गइले, बहरी पसरि गइले
धन-धन गउअन के भाग।