भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गांव से निकले कि / माधव कौशिक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गांव से निकले कि सब फंसकर शहर में रह गए
सिर्फ़ उनकी याद के पत्थर ह्ई घर में रह गए।

मंज़िलों पर पहुंचकर लोगों को दिखलाऊंगा क्या
पांव के छाले तो सारे रहगुज़र में रह गए।

क्या हुआ, हंसते लोगों को सड़कें खा गईं
सिर्फ़ पथराव हुए चेहरे नगर में रह गए।

मैं तो उन लोगों का सबसे पूछता हूं हाल-चाल
जो सफर में साथ थे लेकिन सफर में रह गए।

उन परिंदों की न पूछो, पर उगे और उड़ गए
अब तो तिनकों के नशेमन ही शजर में रह गए।

वक़्त ने मुहलत नहीं दी वरना दिखलाते तुम्हें
कैसे-कैसे ख़्वाब,किस-किस की नज़र में रह गए।