गीत विजय के / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
हाला प्याला के गायन मुझे पसन्द नहीं
मैं भैरव-स्वर में गीत विजय के गाता हूँ।
अब सुरा सुन्दरी का साथी! युग बीत चुका,
है धधक रही दिल में ज्वाला अरमानों की।
स्वाधीन देश के युवकों को नूतन बल दें,
है आज ज़रूरत ऐसे अमर तरानों की।
जर्जर शरीर में फूँक सकें जो प्राण नए,
वृद्धों में फिर से भर दें जोश जवानी का,
ठण्डे लोहू में भी फिर से ला दें उबाल,
जो आग लगा दें रूप बदल कर पानी का।
लग तीर तुल्य दें कायरता के बन्ध काट,
मैं जागृति के वे अभिनव छन्द बनाता हूँ।
हाला प्याला के गायन मुझे पसन्द नहीं
मैं भैरव-स्वर में गीत विजय के गाता हूँ।
है आज चाहना फिर भूषण से कवियों की,
जो शेर शिवा की सुप्त शक्ति को जगा सकें।
चाहिये सुगायक चतुर चन्दवरदाई से,
जो भग्न उरों से निरुत्साह को भगा सकें।
तम से पूरित पथ में भटके इंसानों के,
आलोक बिछा कर, घोर पतन से त्राण करें।
जन-जन के जीवन में नवजीवन ज्योति लगा,
उज्ज्वल भविष्य का जो जग में निर्माण करें।
सच्चे अर्थों में वही सफल वर गायक हैं,
मैं उनके ही स्वर गीतों में दुहराता हूँ।
हाला प्याला के गायन मुझे पसन्द नहीं
मैं भैरव-स्वर में गीत विजय के गाता हूँ।
जब होता हो दानवता का ताण्डव नर्त्तन,
कवि बैठ सके चुपचाप, उसे अधिकार नहीं।
जल रहा भूख की ज्वाला में हो जब मानव,
भाती मन को मृदु वीणा की झंकार नहीं।
जो हार-जीत या सुख-दुख में दे साथ सदा,
विपरीत न हो मैं मीत उसी को कहता हूँ,
जो शिथिल पगों में तूफानी गति भर, जड़ को
गतिमय कर दे, मैं गीत उसी को कहता हूँ।
जो गीतकार आवाज़ समय की सुन पाता,
मैं उसके अन्तर में खुद को ही पाता हूँ।
हाला प्याला के गायन मुझे पसन्द नहीं
मैं भैरव-स्वर में गीत विजय के गाता हूँ।
कवि नियति-करों का नहीं खिलौना बन सकता,
वह कर्मठ खुद ही अपना भाग्य विधाता है।
मच जाती भारी उथल-पुथल जगतीतल में,
जब क्रोधित हो वह गीत प्रलय के गाता है।
जूझा करता संघर्षों से निर्भय होकर,
झुकता न कभी वह अनुपम वीर विजतेता है।
वह सदा दूसरों को वरदान दिया करता है,
जग के सारे अभिशाप स्वयं सह लेता है।
है वही भारती माता का सच्चा सपूत,
मैं उसकी पावन पद-रज शीश चढ़ाता हूँ।
हाला प्याला के गायन मुझे पसन्द नहीं
मैं भैरव-स्वर में गीत विजय के गाता हूँ।