गुठली चच्चा / संजीव कुमार 'मुकेश'
बड़का मालीक बुझ बुझईलका!
तु की कईला गुठली चच्चा।
तोहरे पर विष्वास हल अंतिम,
फिर अबरी दे देलहो गच्चा।
पढ़-लिख के हम डिग्री लइंलूँ,
चल के खोलम चाय दोकान।
मुद्रा से जब लोन लेलूँ तऽ,
जाके बचल हमर परान।
पापा रोज हुरकुच्चा मारे,
कब लइमें घर जच्चा-बच्चा।
बड़का मालीक...
पाँचे साल में नेता जी के,
बढ़ जइतो अब वेतन।
दू नमरी में आधा किलो,
घर ले अइहा बेसन।
सब्सीडी जे छोड़ देलक हे,
ऊहे दश भक्त हे सच्चा।
बड़का मालीक...
मीडिल क्लास के कंधे पर हो,
देष के पुरा बोझ।
घर के चुल्हा सोझिआबें में,
बुद्धि होल हे सोझ।
अच्छा दिन के ललटेन लेके,
खोज रहलो हे बच्चा-बच्चा।
बड़का मालीक...
चार साल से मालीक पुरा,
सुन रहलूँ हल तोहरे बात।
लेकिन अब हमरो लग रहलो,
सहिये हल छुच्छे गलबात।
दिन-अन्हरिया न´् सुझ रहलो,
के हे झूठा, के हे सच्चा।
बड़का मालीक बुझ बुझईलका!
तु की कईला गुठली चच्चा।
तोहरे पर विष्वास हल अंतिम,
फिर अबरी दे देलहो गच्चा।