भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुड़िया-5 / नीरज दइया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यहाँ की नहीं तुम
आई हो किसी लोक से
सुंदर-सी बन गुड़िया

जब भी देखता हूँ-
पाता हूँ तुम्हें
मासूम-सी एक गुड़िया

अब बचपन जा चुका
कहाँ छुपा सकता हूँ तुम्हें -
मन के सिवाय !