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गुमनाम ख़त / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
अपने किराए के कमरे का समान समेटते हुए
आज शाम
तुम्हारे कुछ पुराने ख़त मिले
वो गुमनाम ख़त
जो तुमने किसी और के लिए लिखे थे
मेरे कमरे में बैठ कर
मेरे सामने
मुझसे बातें करते हुए
मन में फिर से वही सवाल उठ आए
किसके लिए थे ये ख़त?
क्यूँ किसी का नाम ना होता था इन पर?
क्यूँ मेरे पास रख छोड़ जाते थे तुम?
आज भी मेरा मन यह सोच रहा हैं
कहीं ये मेरे लिए तो नहीं थे?