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गुम आकाश से / अमृता भारती
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मैंने
आदमी के गुम आकाश से
टँगे हुए
सूर्योदय उतारे थे
उसके अन्धेरों को इकट्ठा करते हुए
मैं नहीं जानती थी
कि अपना मर्म चीर कर
मुझे ही उगना होगा