भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गूंगे बोलते नहीं हैं / उज्ज्वल भट्टाचार्य
Kavita Kosh से
(गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक को समर्पित)
गूँगों की बस्ती में
अचानक एक शख़्स को बोलना आ गया
और वह चीख़ उठा :
मैं गूंगा हूँ।
मैं तुम्हारा हूँ।
सारे गूँगों ने उसकी ओर देखा
सिर हिलाते हुए उन्होंने कहना चाहा :
नहीं, तुम बोलते हो।
तुम अब हमारे नहीं रह गए,
लेकिन उनके गले से आवाज़ नहीं निकली।
और उस शख़्स को कुछ भी सुनाई न दिया।