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गोपाल सिंह नेपाली / अमरेन्द्र
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खुले हुए सागर-पर्वत-सा गीतों के संग जीया
जंगल, पोखर, खेत, पहाड़ों पर हारिल-सा घूमा
जहाँ कहीं सौन्दर्य दिखा, वह वहीं-वहीं पर झूमा
मरुथल पर, ज्यों, उग आया था कल्पवृक्ष का बीया ।
खुली धूप में छाये बादल, प्रेमी का जी हरसा
कविता की वीणा पर गूँजा राष्ट्रगान का भैरव
लोकदेवता जाग उठा ले लोकछन्द का कैरव
पुरुष देह में नारी का मन; बादल बनकर बरसा ।
नाच उठे रस-अलंकार, बिम्बों ने नयन सँवारे
शब्दों ने झाड़ा धूलों को सरस अर्थ को पाकर
जनता थिरकी जनगीतों को अपने सुर में गाकर
पागल मन था, दूर कहीं से, जैसे कोई पुकारे ।
जिसकी कविता कभी सरस्वती और कभी थी काली
काव्य पुरुष था सचमुच में गोपाल सिंह नेपाली ।