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गोपिन पटतर नहिं सुरनारी / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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गोपिन पटतर नहिं सुरनारी।
सबहि नचावनहार स्वयं हरि नाचे जिन सँग दै करतारी॥
सफल भई जिनकी सब इंद्रिय, पाइ परस निज मन अनुहारी।
मन-मति भए धन्य अपने महँ, निरखि निरंतर बसे मुरारी॥
नयन-सरोज बसे नित बनि मधु मधुकर-रूप मदन-मद-हारी।
स्रवननि बसे नित्य मुरली-धुनि, स्वर लहरी निज जन सुखकारी॥
बसे नासिका गंध मधुर सुंदर सजि करत सबहि मतवारी।
रसना बसे अन्न बनि रुचिकर, मधुर, मनोहर, सुचि, मनहारी॥
सकल अंग सुख दैन, सबन्हि के अंग परस निज मादनकारी।
करि संस्परस, भोग्य बन सब के, तन-मन सफल किए नित झारी॥
गोपी-जन-मन-प्रेम-रसास्वादन हित प्रेमबिबस गिरधारी।
रहत नित्य ललचात मनहिं मन, लहत परम सुख सुख-आधारी॥