भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गोपी बिरह(राग सोरठ-1) / तुलसीदास
Kavita Kosh से
गोपी बिरह(राग सोरठ-1)
()
मधुकर! कहहु कहन जो पारौ।
बलि, नाहिन अपराध रावरो, सकुचि साथ जनि मारौ।1।
नहिं तुम ब्रज बसि नन्दलाल को बालबिनोद निहारी।
नाहिन रास रसिक रस चाख्यो, तात डेल सो डारौ।2।
तुलसी जौ न गए प्रीतम सँग प्रान त्यागि तनु न्यारौ।
तौ सुनिबो दखिबो बहुत अब कहा करम सों चारौं।3।
()
उधौ जू कह्यो तिहारोइ कीबो।
नीकें जिय की जानि अपनपौ समुझि सिखावन दीबौ।।1
स्याम बियोगी ब्रज के लोगनि जोग जो जानौं।
तौं सँकोच परिहरि पा लागौं परमारथ हि बखानौं।2।
गोपी ग्वाल गोसुत सब रहत रूप अनुरागे।
दीन मलीन छीन तनु डोलज मीन मजा सों लागे।3।
तुलसी है सनेह दुखदायक , नहिं जानत ऐसो को है।
तऊ न होत कान्ह को सो मन, सबै साहिबहि सोहै।4।