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गोल पत्तों के छप्पर की छाती चूमकर / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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गोल पत्तों के छप्पर की छाती चूमकर नीला धुआँ
सुबह-ओ-शाम उड़कर घुल जाता है कार्तिक के कुहासे के साथ अमराई में।

पोखर की छोटी-छोटी लाल काई हल्की लहर से बार-बार चाहती है जुड़ना
करबी के कच्चे पत्ते, चूमना चाहते हैं मच्छीखोर पक्षी के पाँव
एक एक ईंट धँसकर-खो कहाँ जाती है गहरे पानी में डूब कर
टूटे घाट पर आज कोई आकर चावल धुले हाथों से गूँधती नहीं चोटी
सूखे पत्ते इधर-उधर नहीं डोलते-फिरते
कौड़ी खेल की मस्ती में-यह घर हो गया है साँप का बिल।

डायन की तरह हाथ उठाये-उठाये भुतहा पेड़ों के जंगल से
हवा आकर क्या गयी-समझ नहीं पाया समझ नहीं पाया-चील क्यों रोती है
दुनिया के किसी कोने में मैंने नहीं देखा ऐसी निर्जनता
सीधे रास्ते-भीगे पथ-मुँह पर घूँघट डाले बाँस चढ़ गया है विधवा की छत।

श्मशान के पार सहसा जब संध्या उतर आती है,
सहज की डाल पर कार्तिक का चाँद निकलने पर रोते हैं उल्लू-नीम, नीम...नीम।